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उत्तराखंड जितना अपनी प्राकृतिक सुन्दरता तथा तीर्थ स्थानों के लिए प्रसिद्ध है, उतना ही गहरा नाता इसका प्राकृतिक आपदाओं से भी है। मगर इन्हें प्राकृतिक आपदाओं का नाम दिया जाय या हमारे द्वारा आमंत्रित! जिस संख्या में ये आपदायें आ रहीं हैं, उससे तो यही अनुमान लगाया जा सकता है कि इन आपदाओं के लिए हम और व्यवस्था दोनों ही जिम्मेदार हैं। सरकारें ठोस नीति बनाने में विफल हैं, तो हम अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए बिना किसी योजना के उन सभी कारणों के कारक बन रहे हैं, जो आपदा जैसी भयानक समस्या को निमंत्रण दे रहे हैं।
उत्तराखंड और देश के अन्य हिस्सों में हर साल हजारों की संख्या में लोग अपनी जान गवांने के साथ-साथ अन्य संपदाओं को खो रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से भारी बारिश के कारण नदियाँ उफान पर हैं। पहाड़ों में लगातार भूस्खलन हो रहा है और कहीं-कहीं बादल फटने की घटना आम है। वहीं, असम और बिहार जैसे राज्य बाढ़ की चपेट में हैं, जिसमें कई लोग बेघर हो गए हैं। कहीं-कहीं पूरे गांव के गांव पलायन को मजबूर हो गए हैं। सरकारें मुआवजा के नाम पर खाना पूर्ति कर रही हैं। पुनर्वास सम्बन्धी योजनायें बन रही हैं। परन्तु कुछ प्रश्न हैं, जिनका उत्तर पाये बिना हम इन समस्याओं को प्रकृति जनित मानें या नहीं? या फिर हमारी छोटी-छोटी भूल और लापरवाही का एक पुलिंदा मानें।
ऐसा नहीं है कि हर साल वर्षा नहीं होती और नदियों का जलस्तर आज से पहले कभी नहीं बढ़ा हो या न ही सरकार व प्रशासन इन सब से अनभिज्ञ थे। हम इन्हें कुछ घटनाओं के अवलोकन द्वारा समझ सकते हैं। देहरादून जिले के एक ग्राम में नदी के कटाव से पूरा मलबा गांव में घुस आया और सभी घर मलबे की जद में आ गए। तो यह समस्या इसी साल क्यों आयी? जबकि बरसात तो पहले भी हुयी है। इसका कारण व्यवस्था की लापरवाही कहें या भूल? नदी के एक छोर पर गांव है, तो दूसरी ओर सड़क का निर्माण हुआ। सड़क बनाने के दौरान सारा मालबा नदी में डाल दिया गया, जिसके निस्तारण की उचित वयवस्था नहीं की गयी। फलस्वरूप नदी के बहाव की दिशा गांव की ओर बदल गयी व ऊपर से बादल फटने पर अधिक मात्रा में नदी का जलस्तर बढ़ा और वह सारा मालबा गांव में घुस आया।
वहीं, जिले में हुयी दूसरी घटना भी गंभीर है, जहां हाल ही के दिनों में एक निजी स्कूल बरसात के बाद मलबे की चपेट में आ गया, जिससे सैकड़ों छात्रों का जीवन संकट में पड़ गया था। इस घटना ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि व्यवस्था किस प्रकार नीतिहीन है, जो नदी के किनारे संभावित खतरों को दृष्टिगत किये बिना स्कूल जैसी संवेदनशील इमारतों को बनवाने की इजाजत दे रही है? नदी और बरसाती नालों के किनारे अवैध कॉलोनियों का निर्माण हो रहा है और प्रशासन इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा। चोरी छिपे जहाँ घर बना भी दिए गए हैं, वहां अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए कोई कार्रवाई नहीं हो रही है, जो भविष्य में इन तथाकथित प्राकृतिक आपदाओं को निमंत्रण देगी।
पहाड़ों में भूस्खलन के अनेक कारणों में से एक, पेड़ों का अनियंत्रित कटान है। पहाड़ों में लोग लकड़ियों को रसोई के ईंधन के रूप प्रयोग करते हैं पर समस्या तब गंभीर हो जाती है, जब विवाह या अन्य किसी अवसर पर १०-१५ पेड़ प्रति समारोह काटे जाते हैं। जितना बड़ा समारोह, उतने अधिक पेड़ों का कटान। एक छोटे ही ग्राम में हर साल ५-८ विभिन्न प्रकार के समारोह होते हैं और बड़ी संख्या में पेड़ों का कटान होता है। जिस अनुपात में आबादी बढ़ रही है, समारोह भी उसी अनुपात में होंगे और पेड़ों का काटन भी। प्रशासन इन सब को अब तक रोकने में असमर्थ है और यह जागरूक करने में विफल रहा है कि पेड़ों को न काटा जाए।
प्रशासन कोई ऐसी प्रभावी नीति बनाये, जिससे समाज यह समझ पाए कि हम जिस मात्रा में पेड़ों को काट रहे हैं, उस मात्रा में रोपण नहीं हो पा रहा है। भले ही वन विभाग हर साल लाखों पेड़ लगाने का दावा क्यों न करता हो, पर उनमें से दस पेड़ भी अपना जीवन चक्र पूरा नहीं करते। हम अपने आराम के लिए प्रकृति का अंधाधुंध विनाश कर रहे हैं और इसके निस्तारण की कोई प्रभावकारी व्यवस्था नहीं बन पा रही है। इससे आने वाले समय के लिए एक गंभीर समस्या का जन्म हो रहा है। जहां कभी बादल नहीं फटे, अब वहां सहज ही बादल फट रहे हैं। इसके लिए हम जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं। परन्तु हम किस हद तक जिम्मेदार हैं, यह चिंतन का विषय है। हम अपने त्वरित फायदे के लिए काम तेजी से कर रहे हैं, परन्तु प्रकृति पर बुरी छाप भी छोड़ रहे हैं, जिसका भुगतान हमें आमंत्रित की गयी इन प्राकृतिक आपदाओं के रूप में चुकाना पड़ रहा है। हम किसी परियोजना को प्रारम्भ तो कर रहे हैं, पर उसके दुष्प्रभावों के निस्तारण के लिए ठोस नीति बनाने में विफल हैं। हमें सम्मलित प्रयास करने होंगे, ताकि इस प्रकार की घटनाओं से बचा जाय।
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